नव वर्ष मंगलमय हो!!

एक साल और बीत गया, जीवन के हिस्से से एक बरस और निकल गया, अब हम नये वर्ष की दहलीज लांघ चुके हैं, कुछ अच्छी और कुछ बुरी यादों के साथ सफ़र जारी है, आशा और निराशा के साथ फिर हम इस दुनिया को नये अंदाज में देखना शुरू करेंगे, पर शायद तरीका वही होगा!

दुनिया कितनी खूबसूरत है या बुरी यह हमारे नजरिये और खुद के साथ हुए होनी-अनहोनी से तय होता है, पर इसके बावज़ूद होना यही चाहिए कि हम अपने आसपास, अपने समाज और अपने लोगों में अच्छा ही खोजें, इससे शायद जिंदगी सकारात्मक और रुचिकर हो जाये!

दुनिया के समाजशास्त्रियों ने शोध में पाया है कि लोगों में निराशा बढ़ती जा रही है, इसके अनगिनत कारण भी बताए गए हैं! पर इस निराशा की वजह से हमारे व्यवहार में सरलता, सहजता की जगह कट्टरता और असहिष्णुता बढ़ती जा रही है, एंगजाइटी की वजह से युवाओं में या अपराध की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ने के बजाय उसके समक्ष सरेंडर हो जाना और नशे की लत में व्यापक वृद्धि होना इस बात का संकेत है कि समाज के नैतिक एवं अनुशासित नियम असंतुलित होने के तरफ़ अग्रसर हैं! परिवार के अवधारणा का स्वरुप बदला है जिसने बहुत हद तक समाज को भी प्रभावित किया है यही कारण है कि देश के समक्ष कई प्रकार की चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं जिनसे बहुत सावधानी से ही लड़ा जा सकता है जिसकी पहली शर्त है समाज में नैतिकता के मूल्य की कमजोर कड़ी को पुर्नस्थापित किया जाये, घर परिवार से अनुशासन एवं स्वाभिमान की सीख लेकर बच्चे समाज में अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास करें, नशा जो आजकल आधुनिकता का पैमाना बना हुआ है उसे सामाजिक बुराई घोषित करने पर जोर दिया जाये, शिक्षा पर बल सिर्फ इसलिए ना दिया जाये कि बच्चों तुम्हें नौकरी पानी है, शिक्षा का लक्ष्य नौकरी से परे समुची दुनिया के समक्ष “विश्व का कल्याण हो” तय करना होगा तब जाकर शिक्षा अर्जन के संकुचित होते दायरे को यथार्थ विस्तार मिलेगा,

आज देश में वृद्ध-आश्रम तेजी से खुलते जा रहे हैं यह खुश होने का नहीं बल्कि चिंता करने का विषय है कि आखिर समाज से कैसे लोक लाज और सामाजिक दबाव की कड़ी कमजोर हो गयी कि कोई भी व्यक्ति चाहे जिस स्तर तक स्वेच्छाचारी हो सकता है, शिक्षा के स्वरुप का बहुत हद तक योगदान है परिवार को तोड़ने में, पहले गुरुकुल परम्परा हुआ करता था, छोटे बच्चे अच्छी तालीम के साथ बड़े होकर अपने घर अपने माँ बाप के पास आ जाते थे, फिर शिक्षा का स्वरुप बदला, शिक्षा के साथ डर को जोड़ा गया परिणामस्वरुप माँ बाप और बच्चे डर कर येन केन प्रकारेण सिर्फ अच्छी तालीम और नौकरी को लक्ष्य बनाते गए पर अफ़सोस इस प्रक्रिया में जो सबसे महत्वपूर्ण था वही पीछे छुटता गया वह था माँ बाप के प्रति बेटे की संवेदना और भावनात्मक लगाव! परिणाम वातसल्य और ममता के अभाव ने बच्चों को वेल इंटलेक्चुअल मशीन में तब्दील करना शुरू कर दिया!

इस नये वर्ष के आरम्भ से हमें सोच वही पर नये तरीके के साथ आगे बढ़ना होगा, हमने दुनिया के सामने कई उदाहरण रखे हैं, हमारे समाज ने ये भी बतलाया कि अनमय और अलंकृति जैसे बच्चे हमारे अपने हैं और उनको बचाना समाज का नैतिक दायित्व है, अब बस इस मुहिम को क्रांति में बदलना है ताकि कोई ना ही अभाव में मरे और ना ही कोई स्वेच्छाचारी तरीके से समाज के संतुलन को बिगाड़ने की जुर्रत कर सके! तब जाकर कहीं हम एक बेहतर समाज और राष्ट्र निर्माण के तरफ़ अग्रसर हो सकेंगे!

✍️सुरेश राय चुन्नी’

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