रूह पहने इक बदन से मर रहे हैं
हर्फ़ जो मेरे सुख़न से मर रहे हैं

कोई ख़्वाहिश दिल में जल कर मर गई है
और हम उसकी जलन से मर रहे हैं

ख़ुश्बुएँ जाने क्यूँ हिजरत कर रही हैं
फूल जाने किस चुभन से मर रहे हैं

माँग लो कुछ इनसे तुम वरना ये तारे
टूट कर यूँ भी गगन से मर रहे हैं

जब से बाहर ज़हन से जीने लगे हैं
तब से अंदर अपने मन से मर रहे हैं

हिज्र की चीख़ें दबा लीं हमने दिल में
और अब उनकी घुटन से मर रहे हैं

जिसको शिकवा है हमारी बेरुख़ी का
हम उसी के अपने पन से मर रहे हैं

✍️मीनाक्षी जिजीविषा
फरीदाबाद

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