जब आच्छादित हो झीना दुशाला
फिर मार्ग प्रशस्त नहीं हो पाता,
बाधित करे दृष्टि, ऐसे आंचल
को ओढ़ हृदय अकुलाता।

असमंजस में पग आगे बढ़ते
कभी भयातुर हिय ठिठक जाता,
दुविधा में लिप्त मस्तिष्क,मानचित्र की
भाषा समझ नहीं पाता।

पथिक का पराजित हो थम जाना
कदाचित स्वीकार्य नहीं होता,
भावों संग धुंधला विचलन को
चीर,सधे कदमों से वो आगे बढ़ता।।

✍️ संयुक्ता त्यागी
मेरठ

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