15 अगस्त 1947 को स्वाधीनता के बाद स्व के तंत्र की स्थापना होगी ऐसा भारतीयों के मन में था। परंतु स्वाधीनता के 75 वर्ष बाद अब जब देश अमृत काल में है, तब भी हम कह सकते हैं कि मातृभाषा को उचित स्थान नहीं मिल सका। मातृभाषा क्या होती है यह बहस का मुद्दा हो सकता है परंतु जैसे मां का दूध और वात्सल्य बच्चे का पोषण करता है ठीक वैसे ही हर मनुष्य के साथ उसके गर्भ से लेकर जन्म लेने के तुरंत बाद से ही जिस भाषा में उसका संस्कार होने लगता है वही उसकी मातृभाषा है। दुनिया की अधुनातन खोजों ने भी यह सिद्ध किया है।

मातृभाषा को उचित स्थान न मिलने पर संघर्ष भी होते रहे हैं। सबसे बड़ा भाषाई संघर्ष बांग्लादेश में हुआ। इस संघर्ष के दौरान वर्ष 1952 में 21 फरवरी के दिन ढाका विश्वविद्यालय, जगन्नाथ विश्वविद्यालय और ढाका चिकित्सा महाविद्यालय के अनेक छात्र ढाका उच्च न्यायालय के पास पूर्वी पाकिस्तान और बांग्लादेश में बांग्ला भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने वाले आंदोलन के दौरान गोलियों से पुलिस के द्वारा भून दिए गए थे। इस विरोध प्रदर्शन के कारण ही 1956 में पाकिस्तान को बांग्ला भाषा को आधिकारिक भाषा घोषित करना पड़ा था।

भाषाएं मनुष्य की पहचान होती हैं, भाषाएं मरती हैं तो मनुष्य की पहचान मरती है, धूमिल होती है और कालांतर में नष्टप्राय हो जाती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मातृभाषाओं के संरक्षण व संवर्धन की बात चल पड़ी। वैश्विक स्तर पर इसके लिए कोई दिवस तय करने की बात उठी तो 21 फरवरी को ही अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने की सहमति बन गई। इसकी घोषणा सबसे पहले 17 नवंबर 1999 को यूनेस्को के द्वारा की गई। यद्यपि इसकी घोषणा 1999 में हो गई थी, फिर भी संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा के द्वारा इसका प्रस्ताव 2008 में स्वीकृत हुआ था। आधिकारिक रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाने लगा।

अब विज्ञान ने भी कहना प्रारंभ कर दिया है कि व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति मातृभाषा में ही प्रभावी होती है। विश्व के तमाम अध्ययन एवं वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि मातृभाषा में समझने, सीखने और ज्ञान अर्जित करने की क्षमता ज्यादा होती है। पूर्व राष्ट्रपति दिवंगत अब्दुल कलाम ने भी कहा था कि मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बन सका कि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा अपनी मातृभाषा में प्राप्त की थी। परंतु मैकाले की योजना से हुई शिक्षा प्रणाली में बदलाव ने भारत की मौलिक सोच को ही बदल कर रख दिया। अंग्रेजी और अंग्रेजियत ने भारतीयों के मन पर ऐसा प्रभाव छोड़ा कि अपनी मूल संस्कृति का भी क्षरण होने लगा।

संविधान निर्माताओं ने संविधान की रचना करते समय अनुच्छेद 343 में यह व्यवस्था की कि इस देश की राजभाषा हिंदी होगी। भारत 1947 में ही स्वाधीन हुआ था, व्यवस्थाएं परिवर्तित हो रही थी इसलिए संविधान निर्माताओं ने संविधान अंगीकृत करने के 15 वर्षों तक अंग्रेजी भाषा को सरकारी प्रयोजनों के लिए छूट दे दी थी और यह कहा था कि 15 वर्षों के बाद अंग्रेजी समाप्त हो जाएगी। परंतु राजनैतिक कारणों से देश के दक्षिणी भागों में हिंदी का विरोध शुरू हुआ और उसकी आड़ लेते हुए संविधान की मूल भावना की अवहेलना की गई और अंग्रेजी कामकाज की भाषा बनी रह गयी।

संविधान निर्माताओं ने न्यायालय की भाषा भी तय की। अनुच्छेद 348 में यह प्रावधान किया कि देश के उच्चतम न्यायालय व सभी उच्च न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी होगी। परंतु उन्होंने यह भी प्रावधान किया था कि यह व्यवस्था तब तक ही रहेगी जब तक इस देश की संसद कानून के द्वारा अन्य कोई प्रावधान न कर दें। राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण आज तक ऐसा कोई कानून नहीं बन सका जिससे उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की भाषा में परिवर्तन किया जा सके। यदि राजनैतिक इच्छा शक्ति मजबूत हो तो संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत ही उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ-साथ मातृभाषा में भी कार्य करने की छूट सरलता से दी जा सकती है।

सबसे बड़ी विडंबना कि संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएं सूचीबद्ध हैं और उन 22 भाषाओं में अंग्रेजी सूचीबद्ध नहीं है। फिर भी सरकारी कामकाज और न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी बन गई। उच्चतम न्यायालय में संविधान में आठवीं अनुसूची में प्रदत्त 22 भाषाओं में एवं उच्च न्यायालयों में वहां की राजभाषाओं में कार्य हो इसके लिए देश में तमाम आंदोलन भी हो रहे हैं। भारतीय भाषा आंदोलन सहित कई समूह इस कार्य में लगे हैं। जिसका असर भी दिखने लगा है। भारत सरकार भी न्यायालयों की भाषाओं को लेकर संजीदा दिखने लगी है। न्यायालय भी अब न्यायिक निर्णयों की भाषा मातृभाषा में उपलब्ध कराने की योजना बना रहे हैं।

आजकल देश में सामान्य जन के उपभोग की ज्यादातर वस्तुएं पैकेट में बाजार में उपलब्ध हैं परंतु उस पैकेट में क्या सामग्री है यह आम जन समझ नहीं सकते। क्योंकि सारा विवरण अंग्रेजी में होता है। उपभोक्ता मामले के पूर्व मंत्री स्वर्गीय रामविलास पासवान ने एक बार कहा था कि सामान्य जन के उपभोग की वस्तुओं के पैकेट पर मातृभाषा में भी उसका विवरण आना चाहिए परंतु उनका यह सुझाव था। इस संदर्भ में कोई कानून न होने के कारण कंपनियों ने इस सुझाव को नहीं माना। आज भी केवल विज्ञापनों के आधार पर आमजन सामग्री खरीदने को विवश हैं। चीन में वालमार्ट ने अपनी दुकानों में पैकेजिंग पर मेंडारिन और अंग्रेजी दोनों भाषा में डिटेल्स छपवायी थी। उस में इंग्लिश फ़ॉन्ट्स थोड़े बड़े और मेंडारिन थोडे छोटे थे। चीन की सरकार ने वालमार्ट पर जुर्माना लगा दिया क्योंकि उन्होंने चीन की भाषा को इंग्लिश के मुकाबले छोटा दिखाया। लेकिन भारत में तो अंग्रेजी भाषा को लूट की भाषा बना लिया गया है। चिकित्सकों की पर्ची पर लिखी गई दवाओं को सिर्फ दवा विक्रेता ही समझ सकता है। बैंकों के ऋण संबंधी कागजात व बीमा कंपनियों के कागज अंग्रेजी भाषा में ही छोटे-छोटे अक्षरों में छपे होते हैं।

विश्व के कई देशों ने मातृभाषाओं में कार्य करके अपने को विकसित देशों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। इजराइल के वैज्ञानिकों ने हिब्रू भाषा में शोध करके सबसे ज्यादा नोबेल पुरस्कार प्राप्त किये हैं। जापान, जर्मनी सहित तमाम देश अपनी मातृभाषा में ही कार्य करने को प्राथमिकता दे रहें हैं। विश्व के लगभग 100 से अधिक देशों के उच्चतम न्यायालय अपनी मातृभाषा में कार्य कर रहे हैं। तुर्की के कमाल पाशा का उदाहरण सबके सामने है कि उसने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से कैसे तुर्की में टर्किश भाषा के प्रयोग को तत्काल लागू कराया था।

भारत में भी अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का आयोजन होने लगा है परन्तु इसके आयोजन मात्र से कोई लाभ होता नहीं दिखता जब तक कि मातृभाषाओं के संरक्षण एवं संवर्धन की चिंता नहीं की जाएगी। नई शिक्षा नीति के माध्यम से भारत सरकार ने शिक्षा में मातृभाषाओं के प्रयोग जो बात की है उसका विरोध बंद होना चाहिए। गृह मंत्रालय ने तो हिंदी में कार्य करना प्रारंभ कर दिया है लेकिन अन्य मंत्रालयों को भी गृह मंत्रालय का अनुसरण करना चाहिए। न्यायिक शब्दावलियों का भारतीय भाषाओं में शब्दकोश बन तो रहा है परंतु कानून, न्यायालय, प्रशासन, उपभोक्ताओं की सामान्य आवश्यकताओं की वस्तुओं एवं अन्य क्षेत्रों में जब तक मातृभाषाओं का प्रयोग नहीं बढ़ेगा तब तक मातृभाषाओं का संवर्धन नहीं किया जा सकता। मातृभाषाओं को रोजगारपरक भाषा बनाना होगा और यह तभी संभव है जब सभी सरकारें, सभी स्तर के न्यायालय, वित्तीय संस्थान, प्रशासनिक कार्यालय और शैक्षणिक संस्थान राजभाषा में कार्य प्रारंभ करें और इसके लिए सरकार के दृढ़ इच्छाशक्ति की अत्यंत आवश्यकता है।

आशीष राय
(लेखक उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता हैं)

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