जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल का राज्य स्तरीय पार्टी समाप्त होने पर उसका चुनाव चिन्ह जा सकता है – अशोक बालियान, चेयरमैन, पीजेंट वेलफेयर एसोसिएशन
चुनाव आयोग ने जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल का राज्य स्तरीय पार्टी का दर्जा समाप्त कर दिया है, इससे उसके पास सिंबल नहीं रह जाएगा। राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया जयंत चौधरी ने चुनाव आयोग से गुहार लगाई है कि निकाय चुनाव में उनकी पार्टी के प्रत्याशियों को हैंडपंप चुनाव चिह्न ही आवंटित किया जाये। अब यह फैसला चुनव आयोग को करना है
कभी किसान राजनीति के अगुवा रहे पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत आज कमजोर पड़ती दिख रही है। उनके दिवंगत बेटे चौधरी अजित सिंह और पौत्र जयंत चौधरी को वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।
ऐसे में अब राष्ट्रीय लोकदल के पास एक रिजर्व सिंबल नल चुनाव चिह्न भी नहीं रह जाएगा, क्योकि किसी भी पार्टी को राज्य स्तरीय दल मिलनेके लिए यह जरूरी होता है कि उसे विधानसभा चुनाव में 3 प्रतिशत सीटें मिली हों या फिर न्यूनतम 3 सीट हासिल की हो। वर्ष 2022 में रालोद ने सपा के साथ गठबंधन करते हुए 33 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन उसे महज 8 सीटों पर ही जीत मिली थी।
दुनिया में चुनाव चिन्ह का इतिहास काफी पुराना है। वर्ष 1789 में अमेरिका में ‘अलेक्जेंडर हैमिल्टन’ के नेतृत्व में पहली संगठित राजनीतिक पार्टी बनी थी, जिसका नाम ‘फेडरलिस्ट पार्टी’ था। इस पार्टी का निशान एक वृत्ताकार छल्ले यानी साइकिल की रिंग के जैसा था। और इस छल्ले का रंग काला था। यहीं से दुनियाभर के संगठित दलों के बीच चुनाव चिन्ह या पार्टी सिंबल की प्रक्रिया शुरू हुई थी।
गैर मान्यता प्राप्त पार्टी चुनाव आयोग में रजिस्टर्ड तो होती हैं, लेकिन इन्हें मान्यता नहीं होती है। क्योंकि इन पार्टियों ने इतने वोट हासिल नहीं किए होते हैं कि इन्हें क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा दिया जा सके। भारत में ऐसी लगभग 2796 पार्टियां हैं।
वर्ष 1985 में स्व चौधरी चरण सिंह ने लोकदल का गठन किया था। इसी बीच वर्ष 1987 में चौधरी अजित सिंह के राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते पार्टी में फिर विवाद हुआ और लोकदल (अ) का गठन किया गया। इसके बाद लोकदल (अ) का 1988 में जनता दल में विलय हो गया। जब जनता दल में आपसी टकराव हुआ तो वर्ष 1987 लोकदल (अ) और लोकदल (ब) बन गया। फिर इस दल का वर्ष 1988 में जनता पार्टी में विलय हो गया था। फिर जब जनता दल बना तो चौधरी अजित सिंह का दल उसके साथ हो गया। लोकदल (अ) यानी चौधरी अजित सिंह का वर्ष 1993 में कांग्रेस में विलय हो गया था।
चौधरी अजित सिंह ने एक बार फिर कांग्रेस से अलग होकर वर्ष 1996 में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की भाकियू की राजनैतिक विंग किसान कामगार पार्टी की कमान सम्भाली थी। इसके बाद चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत से नाराजगी बढ़ने के बाद वर्ष 1998 में इस दल का नाम चौधरी अजित सिंह ने बदलकर राष्ट्रीय लोकदल कर दिया था।
इसप्रकार इस दल ने कई बार अपना रूप और नाम बदला। कभी किसी से समझौता किया तो कभी किसी दल में विलय किया। चौधरी अजित सिंह अनेकों सत्ता की चाबियां हाथ में लेकर चले तो कई बार हासिए पर भी पहुंच गए थे। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव सरकार की सरकार बचाने के लिए बड़ी धनराशी लेने के आरोपों के कारण चौधरी अजित सिंह बुरे दिन भी देखने को मिले थे।
देश की जाँच एजेंसी सीबीआई के अनुसार वर्ष 1993 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव आया था और सरकार को बचाने के लिए प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के लगातार संपर्क में रहने वाले भजनलाल ने एक और मोर्चा खोल दिया था। उनके निशाने पर जनता दल (अ) के नेता चौधरी अजित सिंह और उनके सांसद थे। 24 जुलाई 1993 को वह ग्रुप के नेता चौधरी अजीत सिंह के घर गए थे, उन्हें बताया गया कि उन्हें प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने मदद देने के लिए भेजा है, उन्हें दो करोड़ रुपये भी दिए गए थे और बदले में सरकार को समर्थन देने की मांग की थी। इस दौरान 26 जुलाई को चौधरी अजित सिंह की पार्टी के एक सांसद राम लखन सिंह यादव ने अपने हिस्से की धनराशी मांग की तो चौधरी अजीत सिंह ने मना कर दिया था। इसके बाद चौधरी अजीत सिंह ने यह मान लिया कि यह भजनलाल ही थे, जिन्होंने कार्यवाही को लीक किया था, और उन्होंने अपना चेहरा बचाने के लिए उलटी मारी और अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने का फैसला किया था।
इसके बाद राम लखन सिंह यादव ने भी अपना एक अलग समहू बना लिया था और मतदान के दिन इस समूह के सात सांसदों ने अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया था।
इसके बाद सीबीआई द्वारा चार्जशीट दाखिल होने पर विद्वान विशेष न्यायाधीश ने सूरज मंडल, शिबू सोरेन, साइमन मरांडी, अजीत सिंह, राम लखन सिंह यादव, राम सरन यादव, रोशन लाल, आनंदी चरण दास, अभय प्रताप सिंह और हाजी मोहम्मद के खिलाफ भी आरोप तय करने का आदेश दिया था।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए इनको रिश्वत के आरोप से बरी कर दिया था कि संविधान के अनुच्छेद-105 के तहत सांसदों को विशेष छूट प्राप्त है। संसद में दिए गए भाषण या वोट पर किसी भी सांसद के खिलाफ किसी भी अदालत में कोई कार्यवाही नहीं हो सकती।
वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव चौधरी अजित सिंह ने कांग्रेस के साथ ही लड़ा था। उस समय बीजेपी के उभरते नेता व गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर के सामने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल बुरी तरह हर गया था। उन्हें मुंबई से रिटायर होकर आए पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह के सामने हार का सामना करना पड़ा था। दूसरी ओर उनके बेटे जयंत चौधरी मथुरा सीट से हेमा मालिनी के सामने हार गए थे।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में चौधरी अजित सिंह और जयंत चौधरी ने वापसी की भरपूर कोशिश की। दोनों ने अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र भी बदले। चौधरी अजित सिंह चुनाव लड़ने के लिए संसदीय क्षेत्र मुजफ्फरनगर चले गए। जयंत चौधरी मथुरा छोड़कर बागपत वापस आ गए। लेकिन यह सारे बदलाव भी बेमानी साबित हुए। एक बार फिर दोनों पिता-पुत्र बुरी तरह लोकसभा चुनाव हारे गए थे। चौधरी अजित सिंह संसदीय क्षेत्र मुजफ्फरनगर से जाट राजनीति में उभरते कद्दावर नेता डॉ संजीव बालियान से हार गए थे और जयंत चौधरी मुम्बई में पुलिस कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह तोमर से हार गए थे।
जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल का राज्य स्तरीय पार्टी समाप्त होने पर उसका चुनाव चिन्ह जा सकता है। राष्ट्रीय लोकदल कभी भी परिवारवाद से बहार नहीं निकला है और राष्ट्रीय लोकदल जाट समुदाय में किसी भी उभरते नये नेतृत्व को समाप्त करने के लिए किसी भी राजनैतिक दल से समझौता करने में फरहेज नहीं करता है। राष्ट्रीय लोकदल ने मोदी सरकार द्वारा किसान हित में लाये गए तीनों कृषि कानूनों का विरोध किया था और देश की सेना के हित में लायी गयी अग्निवीर योजना का भी विरोध किया था। इसी तरह राष्ट्रीय लोकदल ने वे सभी नेता अपने साथ ले लिये थे, जिनपर वर्ष 2013 के दंगों में जाटों को कुचलने का आरोप लगा था। इससे यह साबित हो गया था कि राष्ट्रीय लोकदल अपने स्वार्थ में किसी भी हद तक जा सकता है, इससे जयंत चौधरी की छवि को धक्का लगा था।

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