एक स्त्री बिकती है,
या बेच दी जाती है
जिस्मफ़रोशो की मंडी में;
संसार के लिए ,
खो देती है स्त्रीत्व,
न बहन, न बेटी, न माँ;
रह जाती है बस रूपाजीवा ..
या अनेको तिरस्कारपूर्ण नाम,
सभ्य समाज जिनसे घृणा करता है,
पर जाता है हर रात उसी मंडी…
तृप्त करने अपना पुरुषत्व,
क्यूंकि ये मंडी उसी ने बनाई है.
अपनी स्वार्थपूर्ति हेतू,
पर हाय! हम घृणा करते हैं
रूपाजीवा से,
घृणा।
पर नही रोकते,
उन हाथों को
जो खरीदते हैं बेटियां, बे
चते हैं बेटियां
और उन्हें देते हैं,
घृणित जीवन
“एक रूपाजीवा”
✍️ सिम्मी हसन