हंस लो दिल खोल के ऐ जगवालों!
क्या जाने ये हंसी फिर मिलेगी कि नहीं
आये हैं तो हंसना- रोना वक्त वक्त पर निश्चित है।
आँखें कभी दिल के इरादे से देखती हैं,
कभी मन में जगी उत्कंठा से देखती हैं,
कोई लोभवश जानकारी लेते हैं जिन्दगी में,
तो कोई श्रद्धा भाव से प्रेम भाव को हृदय में रखने के लिए लेते हैं,
ये रिश्ते ये व्यवहार युगों युगों से सामान्यतः चले आ रहे हैं,
आते हैं खुशी चेहरे पर लेकर संस्कृत संस्कार में कोई,
कोई असंस्कृत संस्कार में जन्म ले पृथ्वी पे भोग भोग्य कर पुनः लौट जाते हैं,
यहाँ न किसी का अक्षरशः मनसूबे पूरे हुए हैं,
और नाहीं कहीँ पेड़वा के छाँव में होंगे पूर्णतः ।
✍️संचिता मणि त्रिपाठी
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