पिंडदान श्राद्ध आदि कर्म पुत्र द्वारा ही क्यों ?
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आचार्य वसिष्ठ ने पुत्रवान् व्यक्ति की महिमा के संबंध में कहा है

अपुत्रिण इत्यभिशापः। -वसिष्ठ स्मृति 17/3

अर्थात् पुत्रहीनता एक प्रकार का अभिशाप हैं। और आगे भी बताया है

पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते। अथ पुत्रस्य पौत्रेण ब्रध्नस्याप्नोति विष्टपम् ॥

वसिष्ठ स्मृति 17/5

अर्थात् पिता, पुत्र होने से लोकों को जीत लेता है, पौत्र होने पर आनन्त्य को प्राप्त करता है और प्रपौत्र होने पर वह सूर्य लोक को प्राप्त कर लेता है। मनु महाराज का वचन है

पुंनाम्नो नरकादस्मात् त्रायते पितरं सुतः । तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवा ॥ -मनुस्मृति 9/138

अर्थात् ‘पु’ नामक नरक से ‘त्र’ त्राण करने वाला ‘पुत्र’ कहा जाता है। ब्रह्मा जी ने लड़के को पुत्र कहा है। इसीलिए आस्तिक जन नरक से रक्षा की दृष्टि से पुत्र की इच्छा करते हैं। यही कारण है कि पिंडदान, श्राद्धादि कर्म करने का अधिकार पुत्र को प्रदान किया गया है।

शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि पुत्र वाले धर्मात्माओं की कभी दुर्गति नहीं होती। पुत्र का मुख देख लेने से पिता पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है। पुत्र द्वारा प्राप्त श्राद्ध से मनुष्य स्वर्ग में जाता है। पूत का अर्थ है-पूरा करना। त्र का अर्थ है-न किए से भी पिता की रक्षा करना। पिता अपने पुत्र द्वारा इस लोक में स्थित रहता है। धर्मराज यमराज के मतानुसार जिसके अनेक पुत्र हों, तो श्राद्ध आदि पितृ-कर्म तथा वैदिक (अग्निहोत्र आदि) कर्म ज्येष्ठ पुत्र के करने से ही सफल होता है। भाइयों को अलग-अलग पिंडदान, श्राद्ध-कर्म नहीं करना चाहिए।

भ्रातरश्च पृथक् कुर्यु विभक्ताः कदाचन।

अर्थात् श्राद्ध के अधिकार के संबंध में शास्त्रों में लिखा है कि पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र न हो, तो स्त्री श्राद्ध करे। पत्नी के अभाव में सहोदर भाई और उसके भी अभाव में जामाता एवं दौहित्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।

आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र:।
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