हमको किसी से डर नहीं,
चुपके चुपके रह धीरे धीरे बोलूँ !
सुनना है जिन्हें सुन ले यहाँ कोई बात की गम नहीं!
आये हैं मिट्टी से निर्मित बदन में जीवात्मा के साथ,
फिर फिक्र कैसा कुछ ऐसी-वैसी सुनने के वास्ते?
जीते हैं लोग अपनी तेजोमयी बुद्धि विवेक से ,
पर निन्दा करके क्या भला करेंगे अपने आपको?
आँखें हैं सूर्य की तेज जैसी चित्तवन है कोमल कमल पत्र जैसे!
दिल है मक्खन जैसी शुद्ध आत्मा की अंतर्दृष्टि में,
तो यहाँ कहाँ गुजारा तेरी दूषित भाव वाली भाषणों के ?
स्वतंत्र हूँ स्वच्छंद हूँ हर विकार युक्त विचारों से !
आना है प्रिय बनकर साथ निभाने के लिए खुशी से!
तो निःसंदेह छल कपट त्याग कर संस्कृत संस्कार में आ जाओ!
हूँ मैं नाजुक दिल का पर कर्त्तव्य परायणता में कोई त्रुटी नहीं;
पसंद है यह वसूल मेरे तो निःसंकोच आ जाना !
प्रज्वलित दीपक दूसरे के अंधेरे को भगाता है,
लेकिन अपने पेंदी के छिपे अंधेरे को नहीं ।
कारण के कारण का सम्मानित व्याख्यान ना करो!
यूँ ही समय गुज़र जायेंगे शनैः शनैः ।।
✍️ संचिता मणि त्रिपाठी