जज़्बातों की पहरेदारी ये अखियाँ नहीं मानतीं।
छलक उठतीं हैं जब-तब…सुख-दुख में फर्क नहीं पहचानतीं।।

पर मन कायल होता है इन जज़्बातों का।
भीग जाता है इनकी बिन-मौसम बरसात में।।

ये भी तो उमड़ते हैं उफान पर आये समंदर की तरह।
जिंदगी के हर मोड़ पर…हर हालात में।।

जब झेला नहीं जाता जलाल इनका तो,
बगावत कर बैठती हैं।
अपने खारे पानी के खज़ाने की टेक में ऐंठती हैं।।

नाम..रंग..धर्म…कुछ भी तो नहीं पहचानती हैं।
बस हर मन के आकाश में घिर आए…
जज़्बातों की पहरेदारी को ये कमबख़्त नहीं मानती हैं।।

✍️शरनजीत कौर
विशाखापत्तनम।

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